मेरे घर क आस पास कई गलियाँ खोदी गई हैं
आंत खींचकर बाहर रख दी है मज़दूरों ने|
रास्ते ऐसे सिकुड़ गए हैं
जैसे गला दबा रहा है कोई इनका,
प्रशासन ही है शायद|
मिट्टी की ढेरों के बीच कभी कभी जब टैक्सी चलती है
GPS भी कहता है,
‘भाई, कितने चक्कर लगवाओगे आज?
कभी घर भी जाओगे?’
वैसे भी दोस्त घर पर मिलना टाल जातें हैं|
अब इन कीचड़ की गलियों का
बहाना भी मिल गया है उनको|
आज जिस टॅक्सी में बैठा हूँ
उसके ड्राइवर की पक्की दोस्ती है हॉर्न से
सिग्नल हो न हो, अपने आने की खबर सबको देते जा रहा है वो|
और फोन पर बातें इतनी जैसे
ट्रॅफिक की Live कॉमेंटरी दे रहा हो किसी टीवी चॅनेल को.
ये गाड़ियाँ भी लोगों सी हैं
या लोग गाड़ियों से बन गए हैं,
गड्ढों को अनदेखा करते हैं
ब्रेक लेट लगाते हैं,
पर्सनल स्पेस को समझते ही नहीं,
और फ़िर भी किसी से बात नही करते|
लो इन ख़यालों के बीच घर तो पहुँच गया आज मैं|
कल फ़िर निकलूंगा ऑफीस के लिए
शायद गड्ढे भर देंगे वही लोग,
शायद कल चक्कर ना काटना पड़े|
This is my first Hindi poem. Wrote it almost a year ago. Would love your comments and feedback.