क्या होता अगर इस शहर में दीवारें होती?
क्या होता अगर इस जज़ीरे ने सालों पहले अपनी मुट्ठी बंद कर ली होती?
अगर कोई आ जा न पाता,
बारिश की उन बूँदों के सिवा
जो इसकी उंगलियों के बीच नाचती,
इसका मज़ाक उड़ाती
और फिर इसकी ज़मीन खुरेदकर
थोड़ी सी मिट्टी चुराके
डुबो देती सागर में|
क्या होता अगर इस शहर में दीवारें होती?
क्या यहाँ वैसे ही रास्ते होते,
क्या लोकल ट्रेन भी वैसी ही होती
जैसी आज हैं?
और इन रास्तों पर,
इन ट्रेनों में,
इन दुकानों और मकानों में – जो अक्सर एक जैसे लगते हैं –
जब कभी आवाज़ें मिलतीं
या कभी एक दूसरे को पीछे छोड़ने की दौड़ लगाती,
कभी टकराती,
कभी एक स्वर होंकर गूँजतीं,
क्या उस वक्त उन आवाज़ें में भी
वही बात होती
जो आज है?